सीमेंट पत्थर की जुगलबंदी से गहराता जल संकट , कहीं पलायन के लिए मजबूर न कर दे

जितेंद्र परिहार

ग्वालियर !   अंधाधुंध और बेतरतीब पथरीले विकास के दूषित परिणामों के फलस्वरूप, आज प्रचुर जल भंडारों से संपन्न ग्वालियर भारत के ही सिलिकॉन वैली की राह पर आगे बढ़ता हुआ दक्षिण का केपटाउन शहर बनने की ओर द्रुत गति से अग्रसर है, जो हर किसी के लिए चिंता का विषय जरूर है मगर भाषण और औपचारिकता से आगे कुछ दिखाई नहीं देता है! गौरतलब है कि हर बार गर्मियों से पहले ग्वालियर में पानी की दिनोदिन बढ़ती परेशानी तथा बरसात से पहले शहर को हराभरा बनाने के लिए जनता, जनप्रतिनिधि और सामाजिक संस्थाएं जमकर फोटो सेशन करवाते हैं और मीडिया की सुर्खियां बनते हैं, मगर हालत में कोई तब्दीली आज तक नजर नहीं आई कुछ एक अपवादों को छोड़कर ! बता दें कि शहर की बिगड़ती आबोहवा और गहराते जलसंकट को लेकर न्यायालय तक चिंतित है मगर हमारे विकास के मसीहा प्रकृति की इस रौद्र दस्तक को लेकर कतई चिंतित नहीं है ये अपने आप में चिंता का विषय है! यकीनन किसी भी निर्माण को असल मायने में तभी विकास कहा जा सकता है जब प्रकृतिक संतुलन को प्राथमिकता पर रखकर भौतिकतावादी विकास किया जाए! आज शहर में सड़क, पार्क गलियां, हर कहीं नजर दौड़ाकर देखे तो विकास के नाम पर सीमेंट और पत्थर उड़ेला जा रहा है जो भावी भविष्य के लिए बेहद घातक बनता जा रहा है! वहीं दूसरी तरफ बढ़ती आबादी के कारण पेड़ पौधों पर कुल्हाड़ी चलाकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी की जा रही हैं ! एक समय था जब पहाड़ों से घिरा ग्वालियर शहर जल और जंगल से संपन्न स्वच्छ और अति विकसित राजधानी हुआ करता था! सिंधिया राजवंश द्वारा इस शहर के विकास की जो नींव रखी गई यदि हमारे रहनुमा उसी को ईमानदारी से संरक्षित रखते तो आज जल-वायु को लेकर शहर में इस तरह के हालात निर्मित नहीं होते! मगर धनपति बनने की होड़ में तालाबों, कुंए और बावड़ी को भूमाफियाओं द्वारा निगल लिया गया जिसे जिम्मेदार तमाशबीन बने देखते रहे और बदले में मिले पथरीले कंक्रीट के जंगल?  बड़े बुजुर्गों से सुना है और आज भी शहर में ऐसे तमाम कुंए और बावड़ी है जिनका जीर्णोद्धार करके जलसंकट को काबू में किया जा सकता है ! बिडम्बना की जींवत मिशाल है ग्वालियर की स्वर्ण रेखा नदी जो कभी शहर की जीवन दायनी नदी हुआ करती थी और शहर के बीचोबीच से बहकर इंसान और खेतों की प्यास बुझाती थी मगर आज स्वयं के जीवन रक्षण को लेकर न्यायालय की शरण में है! अब सवाल है कि ये कैसा विकास है और किसके लिए लाभदायक रहेगा ? क्या आम और खास ने कभी यह सोचने का प्रयास किया है कि जल और वायु के अभाव मे आने वाली पीढ़ियों को हमारे द्वारा वोए जा रहे पत्थरों की झुलस से बचने के लिए यहां से पलायन के लिए बाध्य होना पड़ेगा, तो इस तरह के विकास का औचित्य क्या रह जाएगा ? 

अंधाधुंध और बेतरतीब विकास के दुष्परिणाम

कड़ाके की ठंड के बाद भीषण गर्मी, जलवायु परिवर्तन के संकेत के साथ दबे पांव देश में जीवन संकट के रूप में दस्तक दे रहा है ,दक्षिणी देशों के शहरों से जल त्रासदी की  शुरुआत ने धीरे से हमारे भारत देश तक आदम दर्ज करा दी है !  देश के विकसित बैंगलुरु के सिलिकॉन वैली में जल संकट के चलते पिछले कुछ सालों से गर्मी शुरू होते ही पानी की किल्लत के कारण अघोषित रूप से वर्क फ्रॉम होम करना पड़ता है!

प्रकृति बचेगी तभी हम बचेंगे

यदि हमें अपने शहर को दक्षिणी कैपटाउन शहर और भारत के सिलिकॉन वैली की तरह नहीं बनने देना है तो जनता और जनप्रतिनिधियों को एक साथ प्रकृति संरक्षण और संवर्धन के लिए गैर जरूरी सीमेंटेड विकास को बंद करके जलस्रोतों को विकसित तथा वृक्षों को संरक्षित कर युद्ध स्तर पर वास्तविक वृक्षारोपण के माध्यम से असली विकास को अंजाम देना होगा, इसके अलावा शहर में वॉटर हार्वेस्टिंग तालाब और बावडियों के माध्यम भूजल स्तर को संवारना अनिवार्य किया जाना जरूरी है, क्योंकि प्रकृति बचेगी तभी हम बचेंगे!